सादा साड़ी और चप्पल पहनने वाली पद्मश्री डॉ विजयलक्ष्मी देशमाने देश ही नहीं दुनिया भर में कैंसर उपचार के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं। दलित परिवार और झुग्गी बस्ती में पैदा हुई डॉ देशमाने आज कर्नाटक कैंसर सोसायटी में निशुल्क चिकित्सा सेवा देती हैं।
मेहनत की कोई सीमा नहीं है, और न ही सफलता की। वे छोटी चीजें जो किसी के लिए बर्नआउट और डिप्रेसिव हो सकती हैं, किसी और के लिए जीवन का जरूरी संघर्ष। ऐसे ही संघर्षों की सफलता का नाम है डॉ विजयलक्ष्मी देशमाने, देशमाने अर्थात देशमान्य की बेटी। कर्नाटक के एक गरीब दलित परिवार में पैदा हुई विजयलक्ष्मी (Dr Vijayalakshmi Deshmane) आज देश की जानी-मानी ओन्को सर्जन (Onco-surgeon) हैं। 26 जनवरी को कैंसर (Breast Cancer Treatment) उपचार के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई।
जानिए कौन हैं डॉ विजयलक्ष्मी देशमाने
70 वर्षीय डॉ विजयलक्ष्मी देशमाने देशी की जानी-मानी ओन्कोसर्जन हैं। वे स्तन कैंसर में विशेषज्ञता रखती हैं और बेंगलुरू स्थित किदवई मेमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑन्कोलॉजी की डायरेक्टर रह चुकी हैं। डॉ देशमाने का प्रोफाइल बस इतना सा नहीं है। वे एक ऐसे वर्ग से आती हैं, जिनके लिए अपने सपनों को पूरा करना बेहद मुश्किल होता है। यही वजह है कि डॉ देशमाने सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी रहती हैं। फिलहाल वे आईआईटी कोट्टायम की चेयरपर्सन के साथ-साथ बेंगलुरू स्थित अबलाश्रम की अध्यक्ष भी हैं। यह गैरसरकारी संस्था 16 वर्ष और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के रहने और आत्मनिर्भर बनने में मदद करता है।
बुआ की झुग्गी में रहता था विजयलक्ष्मी माने का परिवार
1955 में 6 बहनों और एक भाई के बाद विजयलक्ष्मी का जन्म हुआ। स्वतंत्रता सेनानी और देश की पहली राज्यपाल के नाम पर उनका नाम विजयलक्ष्मी रखा गया। पिता बाबू राव को उम्मीद थी कि उनकी बेटी भी एक दिन पढ़-लिखकर इसी तरह नाम कमाएगी। दलित जाति से संबंध रखने वाले बाबू राव छोटा-मोटा काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। जबकि उनकी पत्नी रत्नम्मा सब्जियां बेचा करती थीं। 10 लोगों का यह परिवार पिता की बहन की झुग्गी में रहा करता था।

परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि वे दूसरों के छोड़े हुए कपड़े और जूतों को रिपेयर करके पहना करते थे। एक वक्त का खाना भी इस बात पर निर्भर करता था कि दिन भर में माता-पिता कितना कमा पाएंगे। पिता कभी लकड़ियां बेचते, कभी बोझा उठाने का काम करते। बाद में उन्हें एक कपड़ा मिल में काम मिल गया और स्थिति थोड़ी बेहतर हुई।
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गरीबी के बावजूद थी शिक्षा के प्रति जागरुकता
एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में डॉ विजयलक्ष्मी देशमाने ने बताया कि, उनके माता-पिता भले ही गरीब और अनपढ़ थे, लेकिन वे चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनें। यही वजह थी कि जाति की बेड़ियां तोड़कर विजयलक्ष्मी ने कन्नड़ और मराठी में शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। परिवार की मदद करने के लिए वे और उनका भाई सिर पर सब्जी की टोकरी रखकर मां के साथ बेचने जाते थे।
डॉ देशमाने कहती हैं, “हम रोज़ तरकारी बेचने जाते थे। यह एक ऐसी चीज है जिसके बिना लोगों का काम नहीं चल सकता। हम तरह-तरह के लोगों को, उनके परिवारों को और शैक्षिक स्तर को देखा करते थे। और हमें भी प्रेरणा मिलती थी कि हमें भी पढ़-लिखकर इनके जैसा बड़ा आदमी बनना है।”
मां का मंगलसूत्र बेचकर लिया एमबीबीएस में एडमिशन
दिन की रोशनी और रात के अंधेरों की परवाह किए बगैर विजयलक्ष्मी ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। मगर 12वीं के बाद शिक्षा महंगी हो जाती है। तब उन्हें लगा कि वे शायद आगे नहीं पढ़ पाएंगी। मगर मां ने अपना मंगलसूत्र उतार कर पिता को बेचने के लिए दिया। ताकि विजयलक्ष्मी की एमबीबीएस की फीस भरी जा सके।
पहले ही साल में फेल हो गईं
एमबीबीएस में एक नए संघर्ष की शुरुआत थी। विजयलक्ष्मी के पास एप्रन खरीदने के भी पैसे नहीं थे। लैब सहायक का पुराना एप्रन पहनकर वे मेडिकल कॉलेज जाया करती थीं। उनके एक सीनियर ने उन्हें सपोर्ट करने के लिए अपना स्टाइपंड उन्हें दे दिया, ताकि वे नया एप्रन खरीद सकें। डॉ विजयलक्ष्मी भावुक होते हुए कहती हैं, हर कदम पर मुझे सोसायटी ने, कुछ अच्छे लाेगों ने सपोर्ट किया है। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकती। मैं उन लोगों का कर्ज कभी नहीं उतार सकती।”
मगर पढ़ाई अब भी बहुत आसान नहीं थी। विजयलक्ष्मी की अब तक की पढ़ाई कन्नड़ माध्यम से हुई थी। जबकि मेडिकल की पढ़ाई पूरी तरह अंग्रेजी माध्यम में थी। यही वजह थी कि एमबीबीएस के पहले साल में वे फेल हो गईं। उन्होंने दिन रात एक करके अंग्रेजी सीखना शुरू किया और वे यूनिवर्सिटी की पहली रैंक होल्डर बन गईं। हालांकि यह वह समय था, जब उनके घर की छत गिरने वाली थी।