जिद्द करना, बात बात पर गुस्सा हो जाना और डिमांड का लगातार बढ़ना, ये वो लक्षण है, जो सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चों में देखने को मिलते हैं। इसकी एक झलक हाल ही में रिलीज़ हुई एडोलेसेंस सीरिज़ में देखने को मिलती है। इस तरह से किशोरावस्था पर डिजिटल दुनिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
मेल इगो, आंखों में गुस्सा और किसी भी समय बल प्रयोग करने की इच्छा रखने वाला एडोलेसेंस का नायक यानि 13 साल का बच्चा उन माता–पिता के लिए एक सबक के समान है, जो कामकाजी होने के कारण दिनभर बच्चे की सुधबुध नहीं लेते हैं। दर्शकों को आखिर तक जोड़कर रखने वाली इस सीरीज़ की कहानी में जहां ठहराव नज़र आता है, तो वहीं किरदार बेचैनी से भरपूर दिखते हैं। हैरान करने वाली ये कहानी उस नन्हे बच्चे के जीवन में घटने वाली सिलसिलेवार घटनाओं को दर्शाती है, जिसका सामना सोशल मीडिया के इस दौर में कम उम्र के बच्चों को करना पड़ रहा है।
हांलाकि पेरेंटिंग पर पेरेंटस कई तरह की बातें करते हैं, मगर उन बातों की सच्चाई बच्चों की परवरिश में नज़र आती है। अपनी ही क्लासमेट का कत्ल करने वाला बच्चा हर आरोप को सिरे से नकारता है, मगर एक सीसीटीवी विडियो सभी सवालों का जवाब बनकर जब पेश की जाती है, तो बच्चे पर उसका गहरा प्रभाव नज़र आता है। जानते हैं सोशल मीडिया का बच्चों पर प्रभाव (dark side of social media)।
जिद्द करना, बात बात पर गुस्सा हो जाना और डिमांड का लगातार बढ़ना, ये वो लक्षण है, जो सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव (dark side of social media) के कारण बच्चों में देखने को मिलते हैं। जहां सोशल मीडिया आम इंसान के जीवन को प्रभावित कर रहा है, तो वहीं उसका असर बच्चों की परवरिश पर भी देखने को मिलता है। कामकाजी माता पिता चाहकर भी बच्चों को वो वक्त और केयर नहीं दे पाते है, जिसके चलते वो अपना अधिकतर समय मोबाइल और गैजेट्स के साथ बिताते है। ऐसे में सोशल मीडिया से उनकी बढ़ती नज़दीकी पर्सनैलिटी को भी धीरे–धीरे प्रभावित करने लगती है। इसकी एक झलक हाल ही में रिलीज़ हुई एडोलेसेंस सीरिज़ में देखने को मिलती है। जो खासतौर एडोलेसेंस एक ऐसी उम्र है, जब बच्चे के शरीर में शारीरिक, भावात्मक और मानसिक बदलाव आते हैं।

साइबरबुलिंग के हैं कई चेहरे
डिजिटल दुनिया (dark side of social media) में क्राइम का रेट तीव्रता से बढ़ रहा है। मैसेजिंग के अलावा मामूली सी दिखने वाली इमोजी भी हानिकारक साबित हो सकती हैं। अधिकतर लोग जहां इसें मज़ाक या दोस्ती के लिए इस्तेमाल करते हैं। वहीं ये साइबरबुलिंग का एक हिस्सा है। एडोलेसेंस में जिस तरह से बताया गया की हर रंग और तरह की इमोजी का मतलग अलग अलग होता, तो वो वाकई चौंकाने वाला है। एक्सपर्ट के अनुसार सोशल मीडिया में एक भी नकारात्मक टिप्पणी बच्चों को नुकसान पहुंचा सकती है।
यह भी पढ़ें


किशोरावस्था पर डिजिटल दुनिया का बढ़ता प्रभाव
एडोलेसेंस उम्र का वो दौर है, जो 11 से 17 साल के बच्चों को जीवन में बाहरी और अंदरूनी कई तरह के बदलावों से होकर गुज़रना पड़ता है। इसमें बच्चों को कभी घर तो कभी स्कूल में बुली का सामना करन पड़ता है, जिससे माता पिता पूरी तरह से अंजान होते है। ऐसे में पेरेंट्स का समय न मिल पाने के कारण बच्चे की पर्सनैलिटी में बदलाव आने लगता है, जिसे एडोलेसेंस सीरिज़ में दर्शाया गया है। ये एक ऐसी मिनी सिरीज़ हैं, जिसके 4 एपिसोड है। 13 साल के लड़के जेमी मिलर के इर्द गिर्द घूमती ये कहानी टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी कल्चर को दर्शाती है। पेरेंट्स की गैर मौजूदगी के चलते बच्चे को मल्टी पर्सनैलिटी डिसऑर्डर होता है।

क्या है एडोलेसेंस सिरीज (Adolescence series)
सीरीज में बचपन, अल्फा मेन यानि मर्दानगी पेरेंट्स का बिज़ी वर्क कल्चर और बच्चों की परवरिश दिखाई गई है। इसमें जेमी मिलर का मर्डर करना और फिर फीमेल काउंसलर से गुस्से में बात करना युवा लड़कों की सोच और उनके सोशल मीडिया के कारण बदलते माइंडसेट को दर्शाता है।
ऑनलाइन दुनिया के संपर्क में आते ही 13 वर्षीय युवा खुद को अल्फामेन मानने लगता है। अब वो रात रात भर लैपटॉप और मोबाइल पर अपना समय बिताता है। ऐसे में सहपाठी की बुलिगं को सहन नहीं कर पाता और उसका मर्डर देता है। सोशल मीडिया के काले सच (dark side of social media) को उजागर करती इस सीरिज में पुलिस स्टेशन पर पूछताछ से लेकर स्कूल में जांच, मनोवैज्ञानिक का मूल्यांकन और फिर परिवार के संघर्ष की कहानी ब्यां की गई है।
सोशल मीडिया ब्रेन को कैसे प्रभावित करता है (How social media affect brain)
इस बारे मे मनोचिकित्सक डॉ युवराज पंत बताते हैं कि बच्चा हाई एनर्जेटिक होता है। वो जल्दी ही किसी चीज़ का रिजल्ट चाहता है। इस उम्र में बच्चे चीजों को गहराई से एनालाइज़ नहीं कर पाते है और पेरेंटस का ध्यान न दे पाना उनकी परेशानी का कारण बन जाता है। दरअसल, बच्चे की मानसिक स्थिति की जानकारी होने के बावजूद समय की कमी के चलते वे बच्चे पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते है, जिससे बच्चों का सोशल मीडिया से अटैचमेंट बढ़ने लगता है और बच्चे दिनभर मोबाइल या लैपटॉप पर अपना वक्त बिताना पसंद करते हैं।
येल मेडिसिन की रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया का एडोलेसेंस की पर्सनैलिटी पर महत्वपूर्ण प्रभाव दिखने लगता है, जिससे चिंता और अवसाद बढ़ने लगता है। साथ ही साइबर बुनिंग जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ने लगती हैं। इसका असर नींद और शारीरिक गतिविधि पर भी दिखने लगता है ।
यूनाइटेड स्टेट्स सर्जन जनरल ने 2023 में सोशल मीडिया और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में एक सोशल मीडिया एडवाइजरी जारी की गई। इस एडवाइजरी की मानें, तो सोशल मीडिया में बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने की क्षमता है। दिनभर ऑनलाइन रहने और गैजेट्स का इस्तेमाल भावनाओं और सीखने की क्षमता का प्रभावित करने लगता है। इसके अतिरिक्त सामाजिक व्यवहार, इमोशनल रेगुलेशन और संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकता है।

एडोलेसेंस में सोशल मीडिया की पेश की गई तस्वीर के सच को इन पहलुओं से खंगालें
एडोलेसेंस उन माता पिता के लिए एक सबक है, जो बड़े शौक से बच्चो को मंहगे मोबाइल और मी टाइम स्पैंड करने के लिए अकेला छोड़ने में विश्वास रखते हैं। जानते हैं किशोरावस्था ने कैसे सोशल मीडिया के काले सच को उजागर किया
1. तकनीक का हानिकारक चेहरा
इससे ये जानकारी मिलती है कि सही तरीके से अगर तकनीक का इस्तेमाल न किया जाए, तो ओवरऑल हेल्थ को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इससे बच्चे हर वक्त व्यस्त रहते हैं और माता पिता से दूरी बनने लगती है। ऐसे में माता पिता को इस बात की जानकारी अवश्य रखनी चाहिए कि बच्चे किन एप्स का इस्तेमाल करते हैं और कितना वक्त सोशल मीडिया पर बिता रहे हैं। इसके लिए पेरेंटिंग लॉक समेत कई एप्स मददगार साबित होती हैं।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के अनुसार 14 से 17 वर्ष के बच्चों पर हुए रिसर्च में पाया गया कि जिनका सोशल मीडिया उपयोग प्रतिदिन सात घंटे से अधिक था। ऐसे बच्चों में डिप्रेशन का खतरा दोगुना बढ़ जाता है।
2. मन में उठते सवालों को शांत करने के लिए रहें उपलब्ध
किसी भी फिल्म या कार्टून देखने के लिए अक्सर डेटिंग एप या फिर कई लुभावने विज्ञापन देखने को मिलते हैं। इससे बच्चों के मन में सवाल पैदा होने लगते हैं और वो उन एप्स तक पहुंचने का प्रयास करते है। ऐसे में माता पिता को चाहिए की उनकी मनोस्थिति को समझकर बात करें और उन्हें समझाने का प्रयास करें। अगर पेरेंटस के पास आज समय की कमी है, तो उससे कल बच्चे का भविष्य में उजाले की जगह अंधेरे का काला साया बढ़ता चला जाएगा।

3. बच्चे के साथ बढ़ रही बुलिंग की घटनाओं का पता लगाएं
सोशल मीडिया साइबर बुलिंग का एक प्लेटफॉर्म है। अगर बच्चा सोशल मीडिया या फिर क्लास रूप में बुलिंग का शिकार हो रहा है, तो उस स्थिति से बच्चे को बाहर निकालने और उसका मनोबल बढ़ाने के लिए प्रयास करें। इसके अलावा फ्रेंडस ग्रुप और टीचर व आसपास के लोगों से भी संपर्क में रहें। बुलिंग और शेमिंग जैसी समस्याओं से बचाने के लिए कुछ घंटे बच्चों के साथ बिताना उनकी मेंटल हेल्थ में सुधार का कारण बनने लगता है।
3. लड़कियों के अलावा लड़कों के लिए गाइडेंस है ज़रूरी
जहां किशोरावस्था में कदम रखते ही लड़कियों को पीरियड्स का सामना करना पड़ता है। तो वहीं लड़कों के शरीर में भी कई बदलव आते हैं। मूड स्विंग, तनाव और अकेलापन लड़कों में भी बढ़ने लगता है। इसके अलावा किसी चीज़ को पाने की चाह तीव्र होती चली जाती है। ऐसे में उन्हें मेंटल और इमोशनल सपोर्ट के अलावा माता पिता के रूप में एक रोल मॉउल की भी आवश्यकता होती है, तो उन्हें मोटिवेट कर सकें।

4. बच्चों के साथ समय बिताएं
अगर आप बच्चों के साथ वक्त बिताएंगे, तो उन्हें दिनभर सोशल मीडिया पर ऑनलाइन रहने की कमी कभी भी महसूस नहीं होगी। वो माता पिता की कंपनी को एजॉय करने लगेंगे। काम के अलावा बच्चों के व्यवहार पर नज़र बनाए रखें। उन्हें जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव के बारे में समझाएं और उनकी समस्या को जानने का प्रयास करें।